चुनावी मौसम् में हर पार्टी अपनी पसंद का गीत संगीत रच कर जनता के कान, आँख, दिल मोह लेना चाहती है. अब हमारे नेताओं में इतनी सृजनात्मकता यानि क्रिएटीवीटि भरी है तो जनता का भी कुछ फ़र्ज़ बनता है की उन्ही के अंदाज़ में उन तक अपनी बात पहुँचाने का बंदोबस्त किया जाए. ये काम करने के लिए वर्षों पहले दो गीतकारों ने अपनी दूरदर्शी समझ का इस्तेमाल किया और दो ऐसे अमर गीत रच डाले जिन्हें हर चुनावी मौसम में घर घर में बजाना चाहिए. अगर ये गीत हर नेता के आगमन पर बजाने शुरू कर दिए जायें तो शायद हाथी से भी मोटी चमड़ी वाले इन बगुला भगतों को अक्ल न सही पर थोड़ी बहुत शर्म ही आ जाये.
ये पहला गीत है फ़िल्म "नवरंग"
जिसके रचेयता थे "श्री भरत व्यास" और दूसरा गीत है फ़िल्म "रोटी कपड़ा और मकान"
से इस गीत के चमत्कारिक बोल रचे थे "वर्मा मल्लिक" ने. और इतिहास गवाह है की इस गीत ने उस वक्त की मौजूदा सरकार की नींद उदा दी थी. फ़िल्म : नवरंग
गीतकार : भरत व्यास
कविराजा कविता के मत अब कान मरोड़ो, धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो
भाव चढ़ रहे, अनाज हो रहा महंगा, दिन दिन भूखे मरोगे रात कटेगी तारे गिन गिन
इसीलिये कहता हूँ भैय्या ये सब छोडो, धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो............
अरे छोड़ो कलम, चलाओ मत कविता की चाकी, घर की रोकड़ देखो कितने पैसे बाकी
अरे कितना घर में घी है, कितना गरम मसाला, कितना पापड़, बड़ि, मंगोरी मिर्च मसाला
कितना तेल लूण, मिर्ची, हल्दी और धनिया, कविराजा चुपके से तुम बन जाओ बनिया
अरे पैसे पर रच काव्य, अरे पैसे, अरे पैसे पर रच काव्य, भूख पर गीत बनाओ,
गेहूँ पर हो ग़ज़ल, धान के शेर सुनाओ
लौण-मिर्च पर चौपाई, चावल पर दोहे, सुगल कोयले पर कविता लिखो तो सोहे
कम भाड़े की, अरे कम भाड़े की खोली पर लिखो क़व्वाली, झन झन करती कहो रुबाई पैसे वाली
शब्दों का जंजाल बड़ा लफ़ड़ा होता है, कवि सम्मेलन दोस्त बड़ा झगड़ा होता है
मुशायरों के शेरों पर रगड़ा होता है, पैसे वाला शेर बड़ा तगड़ा होता है
इसीलिये कहता हूँ मत इस से सर फोड़ो, धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो......
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गीतकार : वर्मा मल्लिक
उसने कहा तू कौन है, मैंने कहा उल्फ़त तेरी, उसने कहा तकता है क्या, मैंने कहा सूरत तेरी
उसने कहा चाहता है क्या, मैंने कहा चाहत तेरी, मैंने कहा समझा नहीं, उसने कहा क़िस्मत तेरी
एक हमें आँख की लड़ाई मार गई, दूसरी तो यार की जुदाई मार गई तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई,
चौथी ये खुदा की खुदाई मार गई, बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई, मंहगाई मार गई...
तबीयत ठीक थी और दिल भी बेक़रार ना था, ये तब की बात है जब किसी से प्यार ना था
जब से प्रीत सपनों में समाई मार गई, मन के मीठे दर्द की गहराई मार गई
नैनों से नैनों की सगाई मार गई, सोच सोच में जो सोच आई मार गई
बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई, मंहगाई मार गई........
कैसे वक़्त में आ के दिल को दिल की लगी बीमारी, मंहगाई की दौर में हो गई मंहगी यार की यारी
दिल की लगी दिल को जब लगाई मार गई, दिल ने की जो प्यार तो दुहाई मार गई
दिल की बात दुनिया को बताई मार गई, दिल की बात दिल में जो छुपाई मार गई,
बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई, मंहगाई मार गई..........
पहले मुट्ठी विच पैसे लेकर, पहले मुट्ठी में पैसे लेकर थैला भर शक्कर लाते थे
अब थैले में पैसे जाते हैं मुट्ठी में शक्कर आती है
हाय मंहगाई, मंहगाई, मंहगाई .... दुहाई है, दुहाई है, दुहाई है, दुहाई... मंहगाई मंहगाई मंहगाई मंहगाई
तू कहाँ से आई, तुझे क्यों मौत ना आई, हाय मंहगाई मंहगाई मंहगाई
शक्कर में ये आटे की मिलाई मार गई, पौडर वाले दुद्ध दी मलाई मार गई
राशन वाली लैन दी लम्बाई मार गई, जनता जो चीखी चिल्लाई मार गई, बाकी कुछ बचा तो मंहगाई
मार गई, मंहगाई मार गई...
गरीब को तो बच्चों की पढ़ाई मार गई, बेटी की शादी और सगाई मार गई
किसी को तो रोटी की कमाई मार गई, कपड़े की किसी को सिलाई मार गई
किसी को मकान की बनवाई मार गई, जीवन दे बस तिन्न निशान - "रोटी कपड़ा और मकान"..........
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